Sunday, March 15, 2020

खिलौना


चार दिन से राघव ने जिद पकड़ी थी, बार बार अपनी माँ को बोलता की मेले लेके चलो वहाँ से उसे अपने लिए रेलगाड़ी खरीदनी है और उसकी माँ रोज यह कहकर टाल देती की जब तुम्हारे पापा आएंगे उनके साथ जाना|


गाँव से करीब एक मील की दुरी पर पड़ोस के गाँव में एक हफ्ते के लिए मेला लगा था, और गाँव के लगभग सारे बच्चे मेला देखकर आ चुके थे और अपने अपने खिलोने दिखाकर राघव को चिढ़ाते थे. राघव के पिताजी शहर में मजदूरी करते थे और सिर्फ रविवार को ही गाँव आते थे|

"कल तुम्हारे पापा आ रहे हैं, उनके साथ जाना मेला देखने" रमा ने उसे सांत्वना देकर सुला दिया.

"पापा आप मुझे मेरी पसंद के खिलना दिलाओगे ना" अगले दिन मेले जाते हुए राघव ने अपने पिता से पूछा.
"हाँ बेटा, जो तुम्हे पसंद हो वही खिलौना ले लेना" रमेश ने जवाब दिया. इस बार उसकी मजदूरी नहीं मिली थी, उसके पास कुल मिलकर ३०० रुपैये ही थे.

राघव ख़ुशी से मेले की तरफ कदम बढ़ता चल गया. मेले में खूब भीड़ थी, ऐसा लगता था मानो आसपास के गाँव के सारे लोग मेले में ही आ गए हों|

कितनी चहल पहल थी मेले में, एक तरफ तो कई तरह के झूले थे, एक तरफ खाने की दुकानें जहां लोगो भिन्न भिन्न प्रकार के पकवान खा रहे थे. कपडे की दूकान पर रंग बिरंगे कपडे, बर्तन की दूकान पर हर धातु के बर्तन और सबसे सुन्दर तो खिलोनो की दुकानें थी.

खिलोनो की दुकानें देखकर राघव का मैं गदगद हों गया.

"सबसे पहले हम रेलगाड़ी लेंगे" राघव ने अपने पिता से बोला
"कितने की है भैया रेलगाड़ी?"
"३०० रुपये की है, एक डैम बढ़िया गाडी है, बैटरी से चलती है और साथ में बैटरी भी मिलेगी" दूकान वाले की बात सुनकर रमेश को थोड़ा झटका लगा. उसने सोचा था की रमा के लिए भी कुछ लेगा और मेले में कुछ खाएंगे भी.
"नहीं बेटा कुछ और ले ले"
"नहीं, मुझे ये रेलगाड़ी है चाइये" राघव ने जिद पकड़ ली थी. रेलगाड़ी उठाकर उसने अपनी हाथो में ले ली और वापस देने को तैयार ही न था.
बहुत देर मानाने पर जब राघव ना माना तो दुकानदार से मोल भाव करके २३० रुपैये में रेलगाड़ी ली. राघव ख़ुशी से पागल था. सोचता की घर जाकर सारे दोस्तों को अपनी रेलगाड़ी दिखायेगा.

"जलेबी खानी है" आगे जाकर उसके पिता ने जलेबी की दूकान पर कुछ जलेबी ली और खाने लगे. रमेश दुकानदार से बाते करने में व्यस्त थे और राघव अपने खिलोने को लेकर आगे बढ़ गया.
रमेश जब जलेबी के पैसे देखकर पलटा तो राघव गायब था, रमेश की सांस अटक गयी.

"देखो पापा ये ट्रैन आवाज भी करती है" राघव ने पलटकर देखा तो उसे अहसास हुआ की उसके पिता वहाँ नहीं है. उसने चारो तरफ देखा, पर उसे रमेश के चेहरा कहीं नज़र नहीं आया.

राघव की आँखों से आँशु बहने लगे और वो सहम गया. डरके मारे वो रोने लगा. जब उससे कुछ समझ नहीं आया तो वो खिलोने वाले की दूकान के पास चला गया. वहां भी उसके पिता नहीं थे.

राघव अब तेजी से रोने लगा, उसने अपनी रेलगाड़ी को वहीँ रख दिया और खिलोने वाले को बोला मेरे पापा को बुला दो.

खिलोने वाले ने उसे अपने पास बिठाकर चुप करने की कोशिश की, तरह तरह के खिलोने दिखाए पारा राघव को कुछ पसंद नहीं आया.
"नहीं चाइये मुझे रेलगाड़ी, बस मेरे पापा चाहिए" राघव चुपने का नाम नहीं ले रहा था.

तभी अचानक रमेश ढूँढ़ते हुए खिलोने की दूकान पर आये. राघव ने आवाज सुनी तो वो भागकर अपने पिता से लिपट गया.

"ये लो तुम्हारी रेलगाड़ी" दूकान वाले ने बोला.
"मुझे कोई खिलौना नहीं चाइये. पापा अब घर चलो" राघव अपने पिता की गोदी से नीचे उतरने को तैयार ना था.

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