Sunday, October 28, 2018

ये वक़्त

कभी उसके पास वक़्त काम था
कभी मुझे जल्दी थी
बहुत तेज रफ़्तार से मानो
रेल गाडी समान जिंदगी चल दी थी

वक़्त खड़ा मूक बना
टकटकी बांधे देखता था
उससे कितने आगे निकल पाएंगे
वो शायद ये सोचता था

हर पल ख़ुशी और दुःख के
मोती की तरह सजोये थे
वक़्त ने तो बड़ी सजींदगी से
जीवन की माला में वो मोती पिरोये थे

हमारे दरवाजे पर दस्तक देकर
वक़्त कुछ इशारा करता था
जरा सा ठहरो तुम
शायद तेज चलने से वो डरता था

हमें क्या मालुम था एक दिन
ये वक़्त निकल जायेगा
न बचपन, न जवानी
लौटकर कुछ न आएगा

ठहरकर कुछ लम्हे हमने
फिर वक़्त के साथ बिताये थे
ऐसा लगा मानो हम
सारा संसार पाए थे 

Saturday, September 29, 2018

हनुमान और नेहरू

कृष्ण काफी दुविधा में थे, युद्ध के मैदान के बीच में अर्जुन ने फिर एक अजीब से मांग रख दी थी| यूँ तो वो वाक्पटुता के मंझे हुए खिलाड़ी थे पर बहुत देर संवाद के बाद भी इस गुत्थी को वो सुलझा नहीं पाए थे

कृष्ण: अर्जुन मुझे तुम्हारी मांग तर्कसंगत नहीं लगती| आखिर हर मांग का कुछ तो औचित्य होना चाहिए
अर्जुन: मेरी मांग पूर्ण रूप से सही है, अगर आप पूरा नहीं कर सकते तो मना कर दीजिये
अर्जुन के शब्द कृष्ण को भेदते हुए निकल गए

कृष्ण: पूर्ण रूप से सही है पर कैसे?
अर्जुन: मैंने कुछ ज्यादा कहाँ माँगा है
कृष्ण: तुमने जो माँगा है वो ज्यादा नहीं नामुमकिन है|

अर्जुन: मैं कुछ नहीं जानता, जब तक आप हनुमान को नहीं लाओगे मैं अब युद्ध नहीं लडूंगा
कृष्ण: अर्जुन तुम जानते हो कितना वक़्त हुआ रामायण को, राम को और हनुमान को, अब इस युग में मैं हनुमान कहाँ से लाऊँ

अर्जुन: जब २०१८ में मोदी जी नेहरू जी को ला सकते हैं तो आप इस युग में हनुमान को तो ला ही सकते हैं. आप जानते हैं कितना वक़्त हुआ नेहरू जी को|

कृष्ण को मालूम नहीं था की भारत की वर्तमान राजनैतिक स्थति से अर्जुन इतना प्रभावित है, शाम का वक़्त था और तभी युद्ध ख़तम होने का संख बजा| उन्हें इस समस्या कोई समाधान नज़र नहीं आ रहा था|

कृष्ण जी ने चैन की सांस ली और रथ का रुख महल की तरफ किया| उन्होंने मन में सोचा की कल सुबह तक मोदी जी किसी और विषय पे बयान दे वरना कल भी पूरा दिन 'हनुमान और नेहरू' की बहस में निकल जायेगा|

Saturday, September 15, 2018

आम का पेड़

गर्मी की तेज दोपहरी होती
या झमाझम सावन की बारिश
खेलने का मन होता
या यु ही बैठे रहने का
मेरे बचपन का मानो केंद्र बिंदु
आँगन के बहार वो आम का पेड़

कभी पिता के साथ
तो कभी भाई के साथ
चाचा के साथ तो
कभी मामा के साथ
हर पल मानो मेरे साथ रहता
आँगन के बहार वो आम का पेड़

फिर अचानक एक दिन
माँ ने मुझे बुलाया और कहा
अब तू बड़ी हो गयी है
घर के अंदर रहना है तुझको
और बस ऐसे ही दूर कर दिया मुझसे
आँगन के बहार वो आम का पेड़

भाई था पर दीदी ना थी
पिता थे पर माता ना थी
चाचा थे पर चाची न थी
ये तो कभी मैंने सोचा ही न था
की बस पुरुषो के लिए ही था
आँगन के बहार वो आम का पेड़

वर्षो बाद जब आज मायके गयी
कुछ वक़्त बैठ गयी फिर वहीँ
आज भी वही आनंद और सुकून
कोई भेदभाव नहीं करता था
आँगन के बहार वो आम का पेड़

तभी माँ ने आवाज लगायी
अंदर आजा वहाँ क्यों बैठी है
मैं उठी और घर के अंदर चल दी
पीछे पलटी तो देखा, टकटकी बांधकर मुझे बुलाता 
आँगन के बहार वो आम का पेड़

Wednesday, August 15, 2018

वक़्त दो

अहसास हो
अभ्यास हो
या कोई प्रयास हो
उसे वक़्त दो

नफरत हो
मोहब्बत हो
या कोई चाहत हो
उसे वक़्त दो

चिंता हो
या शोक हो
या कोई खौफ हो
उसे वक़्त दो

विचार हो
ख्वाब हो
या कोई धयेय हो
उसे वक़्त दो

गम हो
ख़ुशी हो
या कुछ यु ही हो
उसे वक़्त दो

शाम के बाद सूरज निकलने को 
कोयले से मोती बनने को
एक सोच को समाज बदलने को
वक़्त दो!