Monday, April 20, 2015

आखिरी गोली

पिछले १५ साल से वक़्त मनाओ वहीँ ठहरा हुआ था| मसूरी की पहाड़ियों पर एक कमरे का मकान ही मेजर वर्मा की जिंदगी थी, और फ़ौज में बिताये १० साल के साथ साथ वो मेजर शब्द को भी अपनी जिंदगी से पूरी तरह से हटा चुके थे. | लगभग १५ साले पहले उस दिन जैसे सब कुछ ही खत्म हो गया था मेजर वर्मा का, उस दिन से आज तक ये कमरा ही उनका संसार था| वो बस बाहर निकलते थे तो केवल रविवार की सुबह सिर्फ घंटे को टहलने के लिए. उनका पूरा राशन पहले साल उनकी बीवी और बीवी के देहांत के बाद उनकी बेटी लाकर देती थी. वर्मा जी का पूरा परिवार देहरादून में रहता था.

"पापा अब आपको अपना काम खुद से करना पड़ेगा, वैसे भी राशन की दूकान सिर्फ मील दूर ही तो है" आज जब वर्मा जी की बेटी प्रिया राशन लेकर आई तो उसने अपने पिता से कहा

"मुझे आगे पढाई के लिए मुंबई जाना है तो अब मैं हर महीने दो बार आपका राशन लेकर नहीं पाऊँगी" पिता को चुप देख बेटी ने आगे कहा

वर्मा जी के चेहरे पर कोई भाव नहीं था, हमेशा की तरह. चुप चाप बेटी की बात को सुनते रहे|

"पापा आपको बाहर निकालना चाहिए, लोगो से मिलना चाहिए, दुनिया बहुत सुन्दर है, आपको अपनी जिंदगी जीनी चाहिए, खुश रहना चाहिए"

"दुनिया कितनी सुन्दर है, बस मैं तो अपनी जिंदगी ख़ुशी ख़ुशी जीना चाहता हु सर" वर्मा जी कहीं खो गए थे, १५ साल पहले उस दिन की वो बातें आज भी उनके जहन में गूंज रही थी. कारगिल की लड़ाई अपने चरम पर थी और भारत की सेना आगे बढ़ती ही जा रही थी. मेजर वर्मा की टुकड़ी ने आज एक चोटी फतह की थी और आज रात फिर से आगे बढ़ने की तैयारी थी. वर्मा टुकड़ी के ११ लोगो का नेतृत्व कर रहे थे.

"तो अजय घर पर कैसा चल रहा है सब, अब तो तुम्हारी माँ और बीवी में लड़ाई नहीं होती", वर्मा ने अपने साथी और सबसे अजीज दोस्त अजय से पूछा

"कहाँ सर, अपने देश में अगर बहु बेटी को जनम दे तो सास तो सारी उम्र ही लड़ती है" और दोनों हसने लगे

"सर सुना है दूसरी पल्टन में कई लोग शहीद हुए हैं आज, थोड़ा डर सा लगता है जब अपने परिवार का सोचता हु, कोई नहीं है उनका. अगर मुझे कुछ हो गया तो"

"पापा, कहाँ खो गए पापा, जब भी मैं आपसे इस मुद्दे पर बात करती हु आप कहीं खो जाते हो" बेटी की बात सुनकर वर्मा जी अपने खयालो से बाहर आये.

"चलो मैं आपके लिए चाय बनाती हू"

"डरते क्यों हो अजय, देश के लिए जान देने से ज्यादा गर्व की बात कोई हो ही नहीं सकती" वर्मा जी फिर आपने खयालो में डूब गए

"सर आप साथ में हो तो क्या डरना" ये बात याद आते ही आँशु गए थे वर्मा जी के.

उस दिन की लड़ाई काफी मुश्किल थी, जब टुकड़ी ने रात में आगे बढ़ना शुरू किया तो आतंकवादियों ने बहुत जोर की टक्कर दी, मेजर वर्मा की टुकड़ी ने सात आतंकवादियों को मार गिराया था लेकिन अपने भी  साथी शहीद हो चुके थे. मेजर वर्मा को मौत से कभी डर नहीं लगता था, देश के लिए मर मिटना उनका सपना था. गोली बारी पुरे जोरो पर थी और टुकड़ी इधर उधर बिखर चुकी थी. वर्मा ने देखा की आसपास कोई नहीं है. वो अपनी बन्दुक से बराबर गोली चला रहे थे की तभी एक साथी की लाश उनके ऊपर गिर गयी, पूरी खून में लथपथ. यु तो खून देखना कोई नहीं बात नहीं थी वर्मा के लिए पर ना जाने क्यों लाश देखकर उनके हाथ से बन्दुक छूट गयी. बन्दुक छोड़कर वो थोड़े पीछे हटे तो एक और लाश से टकराकर जमीन पर गिर गये, किसी आतंकवादी की लाश पड़ी थी वहाँ. पहली बार मेजर वर्मा को डर लगा था, दिमाग ने काम करना बंद कर दिया, डर बढ़ता ही जा रहा था.

चारो तरफ गोलीबारी जारी थी, उनकी टुकड़ी में अब कुल लोग बाकी थे. खून से लथपथ मेजर वर्मा ने जब बन्दुक पकड़ी तो उनके हाथ काँप रहे थे, उन्हें चारो तरफ सिर्फ मौत नज़र रही थी.

दुनिया बहुत सुन्दर है, पर काफी दूर है शायद.

"पापा ये पिस्तौल कहाँ से आयी आपके पास, आपने तो सारे हथियार वापिस कर दिए थे" वर्मा जी हाथ में एक पुरानी से पिस्तौल लेकर रसोई में पहुंच गए

" बेटी मुझे तो पिछले १५ सालो में इस दुनिया में कुछ सुन्दर नज़र नहीं आया, काश उस दिन टुकड़ी के साथ मैं भी"

"पापा उस बात को भूल जाओ, आपकी क्या गलती, आप जब वापस कैंप पहुंचे तो बुरी तरह घायल थे, आपके पैर में गोलियां लगी थी, आप कैसे लड़ते उस हालत में. आपको तो होश भी दिन बाद में आया था. और फिर महीने दिल्ली में अस्पताल में रहे थे, तब जाकर तो आप सही हुए थे"

ये वो कहानो थी, जो सब जानते थे, जो दुनिया ने खुद ही देखी और समझी थी.

"और ये पिस्तौल के साथ गोली भी है आपके पास, आपने कभी बताया नहीं, ये कितना पुराना लग रहा है" बेटी कमरे में चाय लेकर गयी थी.

उस रात जब मेजर वर्मा से बन्दुक नहीं चली तो वो वापिस जमीन पर बैठ गए, बैठकर उन्होंने देखा की उनके दोनों तरफ लाशें थी जिनमे से खून अभी भी बह रहा था. गरम खून. मेजर वर्मा का डर अपने शिखर पर था. उनमे आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं थी. आँखों में आँशु थे. देश प्रेम और जीवन प्रेम आपस में लड़ रहे थे, खुद पर शर्म रही थी उन्हें.

तभी उन्होंने देखा की आतंकवादी की बगल में एक पिस्तौल पढ़ा हुआ है, रूस का बना हुआ, गोली वाला. उन्होंने उठाया और देखा की उसमे चार गोली बाकी हैं.

देश प्रेम और जीवन प्रेम अभी भी एक दूसरे से लड़ रहे थे. धिक्कार थे मेजर वर्मा को ऐसा फौजी होने पे. उन्होंने पिस्तौल उठाया और अपने सिर  पर लगा लिया.

आखिर जीवन प्रेम जीत गया, मेजर वर्मा ने गोली अपनी ही टांग पर मार दी, एक बार मन किया की आखिरी बची गोली सिर  में मार ले पर दर्द की वजह से हिम्मत नहीं हुई, पिस्तौल जेब में छिपाकर वो चीखने लगे.

"पापा आपकी आँखों में आँशु" चाय खत्म हो चुकी थी.

"बेटी अबसे तुम्हे राशन के लिए आने की जरुरत नहीं पड़ेगी, मैं खुद देख लूँगा"

"मुझे बहुत ख़ुशी हुई ये सुनकर, अब आप बाजार में भी घूमना हर हफ्ते, चलो में निकलती हु", यह कहकर प्रिया कमरे से निकली और घर वापिस चल दी.

मेजर वर्मा ने आखिरी गोली पिस्तौल में डाली और पिस्तौल  का निशाना सिर पर लगा लिया.

जीवन का मोह तो उस दिन ही खत्म हो गया था जब उन्होंने अपने पैर पर खुद ही गोली मारकर घायल होने का नाटक रचा था. विश्वासघात किया था उन्होंने देश और अपनी टुकड़ी के साथ. उस एक छण भर की गलती ने उनका पूरा जीवन नष्ट कर दिया था.

१५ साल वो इस दुनिया में जिंदगी खोजते रहे, सुंदरता खोजते रहे. पर उस रात के बाद उन्हें ना जिंदगी मिली और ना ही सुंदरता. उस दिन अगर देश के लिए लड़ते हुए मौत आ जाती तो वो इस दुनिया से कहीं ज्यादा सुन्दर होती. 

प्रिया करीब १०० मीटर ही पहुंची होगी जब उसे अपने पापा के कमरे से गोली की आवाज सुनाई दी.