Thursday, December 31, 2020

Ex-Girlfriend

A year had passed since they broke-up but Raghav never found the reason why he left Anjali. She loved him and he too loved her, they were together for six years and then suddenly one day Raghav felt that they did not fit together.


He woke-up with strong headache and went out to get his morning tea, it was month of January and winter in Lucknow was at its peak, even at eleven-o-clock in the morning one could not see the sun. When Raghav came back, he opened the drawer of his table and looked at the visiting which was lying there for over three years. It was Anjali who had got the reference for him and gave him that visiting card.

Raghav had his own personal challenges and at times felt alone and lost even when he was with her.

“I know you had a difficult childhood but it doesn’t mean that you will spoil your whole life because of that” Anjali would tell him and console him.

It was one such day, he was feeling lonely and helpless and wanted to be with Anjali. Raghav did try to patch-up with Anjali and went to her house last month but her mother did not let him meet her. She told him that Anjali did not want meet anyone, he had destroyed her life.

All he could do was destroy lives, he did destroy life of his mother at his birth, thought Raghav.

Raghav took out the visiting card and read the address, Anjali always wanted him to make this visit. Raghav was ready for the visit in his light blue sweater which Anjali had chosen for him and put on the wrist watch which she gifted him on his nineteenth birthday.
It was dense fog outside by seven in the evening, the journey of twenty minutes took him more than thirty minutes.

The flat of the Doctor was on third floor of the building in Gomtinagar, he looked the nameplate which read Dr. Ragini Sharma.

Raghav stared at the name for some time and contemplating whether he should ring the bell or go back.

‘I knew you will come’, he thought someone whispered in his ears, but there was no one around. He rang the bell.

Raghav was stunned when the door opened, how this could be even possible. He was spellbound, suddenly the girl took his hands in her hands and pulled him in.

It was pitch dark inside the house, the only light that was coming was from the open door behind him, there were no windows in the house, a ceiling fan was rotating slowly and a rope was hanging from it.

Ceiling fan in the month of January, thought Raghav. He slapped himself to check whether he was dreaming.

How come it was possible that his ex-girlfriend who committed suicide last week by hanging herself from the ceiling fan was standing in-front of him.

As he realized the gravity of the situation, he turned back to run but the door closed with a thud and all he could see were two eyes near the door which were signing like a white bulb.

Raghav moved back, he was standing exactly below the ceiling fan and the rope was just above his head.

Suddenly someone grabbed him from the back and put the rope around his neck. He tried to run away but could not move.

Slowly the noose tightened around his neck on its own, ceiling fan was still rotating.

A few seconds later Raghav was barely able to breathe, his feet were few inches above the ground.

Sunday, July 12, 2020

A Mech Guy in Love

From last few months
my heart is not functioning properly
Readings of pressure gauge
show that I am in love, mechanically

The entropy of my feelings
is increasing day by day
And for her I am ready
for any cost to pay

Sometimes I am in compression
and sometimes force is tensile
Curve reaches the fracture point
when I see her and her smile

Compression ignition and spark ignition
I have both tried
But still, there is some
starting problem on that side

My feelings are superheated
above critical temperature and pressure
Now I have to check whether
any boiling has started over there

As per the first law of thermodynamics

You can not create feelings
and you can not destroy
But if you want then
mix them an make an alloy

To this alloy
Love can be given as a name
I am getting all this,
why she is not understanding the same

I think she is not using intel P4
means her processor is slow
I am also not in a hurry
I have three more years to go

All this written above
proves that,
a Mech Guy in Love.

Sunday, March 15, 2020

खिलौना


चार दिन से राघव ने जिद पकड़ी थी, बार बार अपनी माँ को बोलता की मेले लेके चलो वहाँ से उसे अपने लिए रेलगाड़ी खरीदनी है और उसकी माँ रोज यह कहकर टाल देती की जब तुम्हारे पापा आएंगे उनके साथ जाना|


गाँव से करीब एक मील की दुरी पर पड़ोस के गाँव में एक हफ्ते के लिए मेला लगा था, और गाँव के लगभग सारे बच्चे मेला देखकर आ चुके थे और अपने अपने खिलोने दिखाकर राघव को चिढ़ाते थे. राघव के पिताजी शहर में मजदूरी करते थे और सिर्फ रविवार को ही गाँव आते थे|

"कल तुम्हारे पापा आ रहे हैं, उनके साथ जाना मेला देखने" रमा ने उसे सांत्वना देकर सुला दिया.

"पापा आप मुझे मेरी पसंद के खिलना दिलाओगे ना" अगले दिन मेले जाते हुए राघव ने अपने पिता से पूछा.
"हाँ बेटा, जो तुम्हे पसंद हो वही खिलौना ले लेना" रमेश ने जवाब दिया. इस बार उसकी मजदूरी नहीं मिली थी, उसके पास कुल मिलकर ३०० रुपैये ही थे.

राघव ख़ुशी से मेले की तरफ कदम बढ़ता चल गया. मेले में खूब भीड़ थी, ऐसा लगता था मानो आसपास के गाँव के सारे लोग मेले में ही आ गए हों|

कितनी चहल पहल थी मेले में, एक तरफ तो कई तरह के झूले थे, एक तरफ खाने की दुकानें जहां लोगो भिन्न भिन्न प्रकार के पकवान खा रहे थे. कपडे की दूकान पर रंग बिरंगे कपडे, बर्तन की दूकान पर हर धातु के बर्तन और सबसे सुन्दर तो खिलोनो की दुकानें थी.

खिलोनो की दुकानें देखकर राघव का मैं गदगद हों गया.

"सबसे पहले हम रेलगाड़ी लेंगे" राघव ने अपने पिता से बोला
"कितने की है भैया रेलगाड़ी?"
"३०० रुपये की है, एक डैम बढ़िया गाडी है, बैटरी से चलती है और साथ में बैटरी भी मिलेगी" दूकान वाले की बात सुनकर रमेश को थोड़ा झटका लगा. उसने सोचा था की रमा के लिए भी कुछ लेगा और मेले में कुछ खाएंगे भी.
"नहीं बेटा कुछ और ले ले"
"नहीं, मुझे ये रेलगाड़ी है चाइये" राघव ने जिद पकड़ ली थी. रेलगाड़ी उठाकर उसने अपनी हाथो में ले ली और वापस देने को तैयार ही न था.
बहुत देर मानाने पर जब राघव ना माना तो दुकानदार से मोल भाव करके २३० रुपैये में रेलगाड़ी ली. राघव ख़ुशी से पागल था. सोचता की घर जाकर सारे दोस्तों को अपनी रेलगाड़ी दिखायेगा.

"जलेबी खानी है" आगे जाकर उसके पिता ने जलेबी की दूकान पर कुछ जलेबी ली और खाने लगे. रमेश दुकानदार से बाते करने में व्यस्त थे और राघव अपने खिलोने को लेकर आगे बढ़ गया.
रमेश जब जलेबी के पैसे देखकर पलटा तो राघव गायब था, रमेश की सांस अटक गयी.

"देखो पापा ये ट्रैन आवाज भी करती है" राघव ने पलटकर देखा तो उसे अहसास हुआ की उसके पिता वहाँ नहीं है. उसने चारो तरफ देखा, पर उसे रमेश के चेहरा कहीं नज़र नहीं आया.

राघव की आँखों से आँशु बहने लगे और वो सहम गया. डरके मारे वो रोने लगा. जब उससे कुछ समझ नहीं आया तो वो खिलोने वाले की दूकान के पास चला गया. वहां भी उसके पिता नहीं थे.

राघव अब तेजी से रोने लगा, उसने अपनी रेलगाड़ी को वहीँ रख दिया और खिलोने वाले को बोला मेरे पापा को बुला दो.

खिलोने वाले ने उसे अपने पास बिठाकर चुप करने की कोशिश की, तरह तरह के खिलोने दिखाए पारा राघव को कुछ पसंद नहीं आया.
"नहीं चाइये मुझे रेलगाड़ी, बस मेरे पापा चाहिए" राघव चुपने का नाम नहीं ले रहा था.

तभी अचानक रमेश ढूँढ़ते हुए खिलोने की दूकान पर आये. राघव ने आवाज सुनी तो वो भागकर अपने पिता से लिपट गया.

"ये लो तुम्हारी रेलगाड़ी" दूकान वाले ने बोला.
"मुझे कोई खिलौना नहीं चाइये. पापा अब घर चलो" राघव अपने पिता की गोदी से नीचे उतरने को तैयार ना था.

Saturday, December 28, 2019

मनोवृत्ति

"आगे बहुत भीड़ है, मैंने बोला था आज नहीं चलते पर तुम तो उतावली थी सुबह से मायके जाने के लिए" मयंक ने गुस्से में बोला.

"शादी के दिन से देख रही हूँ, मुँह फूला है तुम्हारा" स्वाति ने पलटकर जवाब दिया

"अपने पिताजी से पूछो, मुझसे क्या पूछती हो"

तभी अचानक कुछ लोग गाडी के पास आ गए और उन्हें बोला की आगे रास्ता बंद है पीछे से जाओ. मयंक ने गाडी रोकी और घुमाने ही वाला था के कुछ लड़के गाडी में झाँकने लगे और स्वाति की तरफ देखकर अश्लील इशारे करने लगे|

तभी उनकी टोली में से एक आदमी आया, जो नेता सामान प्रतीत होता था और बोला
"आगे नागरिकता बिल के विरोध में रैली है, आप यहीं रुको या वापिस निकल लो"

मयंक गुस्से में गाडी पीछे करने लगा, शादी के दिन से ही उसका मूड खराब था.

"अबे अब्दुल जल्दी इधर है, माल है एक गाडी में"

"छोड़ रेहमान, इधर बहुत मीडिया है, मेरा इंटरव्यू आने वाला है आजतक पर. माल का क्या घंटा करूँगा मैं"

"तू बस इंटरव्यू में पड़े रह"

उस नेता ने कुछ और दोस्तों को फ़ोन करके गाडी के पास बुला लिया करीब बीस लोग इकठ्ठा हो गए थे जो हंस हंस कर नागरिकता बिल और सरकार के खिलाफ नारे बाजी कर रहे थे और ध्यान सबका मयंक की वैगन र पर ही था|

स्वाति ने साड़ी से अपना मुँह ढक लिया.

"ये देखिये एक नव विवाहित दंपत्ति भी बिल के विरोध में रैली में आये हैं" एक रिपोर्टर ने कैमरा में कहा.

मयंक और स्वाति गाडी के बहार खड़े ही हुए थे जब रिपोर्टर उनके पास पंहुचा.

"क्या आपको लगता है ये बिल असंवैधानिक है?" रिपोर्टर ने स्वाति से पूछा

"क्या?" स्वाति ने अचंभित होकर पूछा. उसे भनक भी नहीं थी नागरिकता बिल की और न ही वो रिपोर्टर का सवाल सही से सुन पायी थी. 

"देखिये, दिल्ली की जनता कितनी जागरूक है, ये मानते हैं की ये बिल भारतीय संविधान के खिलाफ है"

"अरे भैया पर मैंने तो कुछ बोला ही नहीं" स्वाति चिल्लाई पर तब तक रिपोर्टर जा चूका था

"आप लोगो का यहां रुकना सही नहीं है, आप यहां से निकल लें" एक पुलिस वाले ने उन्हें सलाह दी पर मयंक वहीँ खड़ा रहा, भीड़ अब आगे आ चुकी थी और गाडी निकालने की जगह नहीं बची थी.

"आपको शर्म नहीं आती देश जल रहा है और आप हनीमून मना रहे हो" रैली में एक बुजुर्ग आदमी उनपर गुस्सा करते हुए बोला, स्वाति के हाथो की मेहँदी अभी तक भी लाल थी.

"यार रैली में आना सफल हो गया, थोड़ा रुक तो जरा जी भर के देख तो लूँ" किसी और ने रैली मैं चिल्लाया.

"रुक रुक थोड़ा मजा करते हैं"
एक नौजवान लड़का जिसके हाथ में जलती हुई मसाल थी उनकी गाडी के पास आकर खड़ा हो गया

"मैंने बोला था मुझे वैगन र नहीं, हौंडा सिटी चाइये, पर तुम्हारे पिताजी नहीं सुनी, अब देखो" मयंक ने गुस्से से स्वाति को बोला. मयंक और स्वाति अपने आस पास के माहौल को भूलकर पति पत्नी की लड़ाई में व्यस्त थे. 

"क्या ये लोग इस गाडी को आग लगाने वाले हैं" रिपोर्टर ने भीड़ में कुछ लोगो से पूछा, स्वाति के दिल की धड़कन रुक गयी. मयंक गाडी से दूर खड़ा टकटकी बांधकर उस लड़के को देखता रहा जिसके हाथ में मसाल थी.

लड़के ने देखा की स्वाति उसकी तरफ बढ़ रही है. रिपोर्टर के शब्द सुनकर लड़के की हिम्मत बढ़ गयी थी, आखिर उसके हाथ में जलती हुई आग थी और वो एक रैली का हिस्सा था

"ओह मैडम यहां क्या कर रही हो, आपके लिए खतरा है यहां" भीड़ के साथ लड़का भी हंस दिया.

"क्या करोगे तुम" स्वाति ने लड़के को घूरते हुए पूछा, लड़के को भीड़ के सामने बेइज्जती महसूस हुई, उसके अंदर का पुरुष जाग गया.

नागरिकता बिल को भूलकर सारी जनता तमाशा देखने के लिए तैयार थी. अब उन्हें रैली में आना सफल लग रहा था, कुछ तो मजेदार हुआ वरना रैली  नीरस लग रही थी

"चुप चाप जाओ यहां से नहीं तो" लड़के ने स्वाति को थोड़ा सा धक्का दे दिया.

"नहीं तो क्या" स्वाति ने पूरी ताकत से लड़के के गाल पर एक थप्पड़ रसीद कर दिया. लड़का और उसके दोस्त गुस्से से आग बबूला हो गए. तभी मयंक ने आकर स्वाति की पीछे कर दिया.

रैली के आत्म सामान को ठेस पहुंच चुकी थी, ये देश के लिए कतई सही नहीं था.

अचानक से कुछ लोग कहीं से पेट्रोल ले कर आ गए और उनकी कार पर छिड़क दिया.

"अब आप क्या करेंगी?" रिपोर्टर ने स्वाति से पूछा.

स्वाति समझ नहीं पायी थी की रिपोर्टर का सवाल उसके लिए सवाल था या रैली में उन आवारा लड़को के लिए खुला आमंत्रण.

आमंत्रण स्वाति से बदला लेने का.

वो कोशिश तो करना चाहती थी पर मयंक ने उसका साथ नहीं दिया. मयंक ने स्वाति को कस के पकड़ा था शायद उसे गाडी उतनी प्यारी ना थी.

"करेंगे तो अब हम" लड़के ने चिल्लाकर जवाब दिया और इससे पहले की स्वाति कुछ बोल पाती गाडी में आग लगा दी.

"नहीं चाहिए, नहीं चाहिए. नागरिकता बिल नहीं चाहिए" सारी भीड़ एक साथ बोली और आगे बढ़ गयी. आग की लपटें देख भीड़ को अपनी रैली का सही मकसद याद आ गया था. रैली अब सफल हो चुकी थी.

स्वाति जमीन पर बैठकर रोने लगी, मयंक जलती हुई कार को देखता रहा.

"आपको लोगो के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था" पुलिस वाले ने आकर उनको बोला.

"उन लोगो ने मेरी कार जला दी और आप मुझे समझा रहे हो" स्वाति चिल्लाई

"समझाइये इन्हे, भीड़ को उकसाने का केस दाल दूंगा" पुलिस वाला मयंक से बोला.

दो घंटे लगे रिपोर्ट लिखने में, गाडी की  आग तब तक करीब करीब बूझ चुकी थी. पुलिस वाले ने दस हजार में रिपोर्ट लिखी, इन्शुरन्स का मामला था.

मयंक और स्वाति ऑटो से घर की तरफ चल दिया. रैली वाले अपनी कार में बैठकर कबके जा चुके थे.







Saturday, November 9, 2019

तू

मेरी सबसे खूबसूरत याद,
तेरी ही याद है
मेरा सबसे खूबसूरत ख्वाब,
तेरा ही ख्वाब है
जब भी टटोलता हूँ जीवन के लम्हो को
तू जहां तब थी,
तू वहाँ आज है 

Monday, April 8, 2019

The Neighbour's Dog

It was past midnight when Ramesh woke up, his body was burning with fever. For the last three days, he was running a high fever, though he was continuously taking medicine but there was no improvement.

He went to the kitchen and filled a glass of water, it was when he was coming back to his bedroom he heard the noise, that same irritating noise of a Barking Dog. He couldn’t believe his ears.  

Ramesh always hated Dogs, and when two months back a family of Punjabi’s shifted to the flat below his flat he was disheartened – the Punjabi family had a Dog.

He couldn’t sleep well for almost a month as the Dog would start barking since early morning and Ramesh would spend rest of his night tossing and turning in his bed. He tried talking to Punjabi family but they felt offended when he addressed the pet as ‘Dog’. The situation remained the same. It was then Ramesh decided to get rid of the Dog and bought rat poison the next day.

Ramesh came back to the bedroom from the kitchen, he thought that he might be hallucinating, he tried to sleep but the noise of a barking Dog continued vibrating in his ears. He found something odd when he heard the noise carefully and realized that it was not coming from the balcony of his neighbors, it was coming from his own balcony. Ramesh was shivering with fever and fear, his heart was beating fast and he was sweating profusely.

Ramesh got shock of his life when Dog came to his bedroom and started barking at him, he woke up his wife who was sleeping next to her and was oblivious to the situation.
‘Sweta see this Dog of Punjabi’s has entered our bedroom’ Ramesh pointed in the direction of Dog standing next to the wardrobe.

Sweta looked around the room.

‘Ramesh there is no one here, someone poisoned that Dog and it had died three days back’, she comforted him.


Ramesh looked at Sweta and closed his eyes, he heard the Dog bark again. 

Sunday, October 28, 2018

ये वक़्त

कभी उसके पास वक़्त काम था
कभी मुझे जल्दी थी
बहुत तेज रफ़्तार से मानो
रेल गाडी समान जिंदगी चल दी थी

वक़्त खड़ा मूक बना
टकटकी बांधे देखता था
उससे कितने आगे निकल पाएंगे
वो शायद ये सोचता था

हर पल ख़ुशी और दुःख के
मोती की तरह सजोये थे
वक़्त ने तो बड़ी सजींदगी से
जीवन की माला में वो मोती पिरोये थे

हमारे दरवाजे पर दस्तक देकर
वक़्त कुछ इशारा करता था
जरा सा ठहरो तुम
शायद तेज चलने से वो डरता था

हमें क्या मालुम था एक दिन
ये वक़्त निकल जायेगा
न बचपन, न जवानी
लौटकर कुछ न आएगा

ठहरकर कुछ लम्हे हमने
फिर वक़्त के साथ बिताये थे
ऐसा लगा मानो हम
सारा संसार पाए थे